सामाजिक सोच मे बदलाव
जैसा कि हम आदी काल से देखते आ रहे है। हमारा समाज पुरूष प्रधान समाज है। इस समाज मे हमेशा से ही पुरूषो को ही अधिक महत्व दिया जाता है।
जैसै किसी परिवार मे नवदम्पति ने किसी पुत्री को जन्म दिया तो वह परिवार उस पुत्री का लालन पालन ठीक ढंग से नही करता और अगर कोई परिवार मान भी लो पुत्री का सही ढंग से लालन पालन करता है। तो भी एक या दो साल बाद उस दम्पति ने दुसरी संतान के रूप मे पुत्र का जन्म होता है। तो उस परिवार की मनोदशा बदल जाती है। वह उस पुत्री की उपेक्षा करने लग जाता है। और पुत्र को अधिक महत्व देने लग जाता है।
जैसै जैसै पुत्र और पुत्री दोनो समय के साथ बडे होते जाते है। उस दौरान सैकडो दफा उस पुत्री को अपनी ईच्छाओ या ख्वाहिशो का दमन कर समझोता करना पडता है।कि यह तेरा छोटा भाई है तुम तो समझदार हो बडी हो ।
और पुत्र की फरमाइश उसी दिन पुरी हो जाती है।जब वह बोलता है लेकिन पुत्री की कोई भी फरमाइश पुरी नही कि जाती ।बहाना बना कर कह दिया जाता है कि अभी पैसा नही है या परिवार के हालात ठीक नही है और पुत्री को फिर से समझोता करना ही पडता है।
लेकिन ऐसा एक बार भी नही होता कि उस पुत्र ने कभी भी अपनी ईच्छाओ की उपेक्षा कर कहा हो या फिर घर वालो ने यह कहा की बेटा यह भी तेरी बडी बहन है एक बार तो इसे भी अपनी ईच्छा के अनुसार जिन्दगी जीने का हक मिलना चाहिए ?
जबकि पुत्र कई बार बाहर से शिकायते लेकर आता है व पुत्री कभी भी कोई शिकायत लेकर नही आती ।फिर भी पुत्र का विशेष खयाल रखा जाता है।
जबकि पुत्री घर के काम काज मे घर वालो का हाथ बटाती है। व अपनी पढाई मे भी पुत्र से हमेशा अव्वल आती है।
पुत्र की लगभग सभी फरमाइशो को पुरा किया जाता है। व ठीक इसके विपरीत पुत्री को तो यह भी नही पुछा जाता है कि बेटी तुम भी कोई फरमाइश या इच्छा तो बताओ
जैसै तेसे उस परिवार के पुत्रो व पुत्रीयो की शादियाँ हो जाती है पिता की बच्चो की शादियो की जिम्मेदारी पुरी हो जाती है।
पुत्रीयो को भाई व पिता की इच्छानुसार जो भी शादी मे कमो वेश उपहार आदी देकर फ्री कर दिया जाता है। व पुत्रौ को उनकी इच्छानुसार सभी काम सम्पन्न करवाये जाते है।
जब 10 , 20 साल बाद माता पिता वृद्ध हो जाते है।उनके पास कोई आमदनी का जरिया शेष नही रह जाता है। तब पुत्रौ द्वारा उपेक्षित होकर वह माता पिता अपनी पुत्रीयौ को ही याद करते है।
तब तक उनके पुत्र उनकी चल अचल सम्पति पर अपना हक जमा कर बैठ जाते है। तब पुत्रीयौ को तो हक त्याग पर दस्तखत करने के लिए बुलाया जाता है और चन्द रूपये उनको दे दिये जाते है।जबकि वह भी उसी पिता की सन्तान है।
आखिर कब तक हमारा समाज इसी सोच के अनुसार चलता रहेगा।अब तो 21 वीं शदी चल रही है। अब तो समाज को अपनी सोच मे बदलाव लाने की परम आवश्यकता है।
जेसे ही किसी परिवार मे पुत्र और पुत्रीयो की शादियो के काम से निवृती हो जाती है।उस परिवार के मुखिया को चाहिए की वह अपनी चल अचल सम्पति का बटवारा इस प्रकार से करना चाहिए की पुत्र व पुत्रीयो मे समान रूप से बाँट देना चाहिए
लेकिन इसके बाद समाज के अनुसार समस्या यह आऐगी की अगर पुत्री को भी पुत्रौ के बराबर सम्पति मिल जाती है तो पुत्र बाद मे के काम करने मे आना कानी करेगे। (भात जामणा पैरावणी ईत्यादी)
इसका समाधान यह है कि चुंकी पुत्रीयो को भी पुत्रौ के बराबर सम्पति का हिस्सा मिल चुका है वह इन कामो को त्यागे
जेसे समाज के ओर लोग किसी शादी ब्याह या फग्संन मे आते है। व जाते है वह भी उसी प्रकार से आये व जाये यह फालतु की लोक रिती तोडने की अब बहुत जरूरत है। व इसके बाद अपने वृद्ध माता पिता जैसै पुत्रौ के पास रहकर अपना बाकी जीवन यापन करते है वैसै ही पुत्रीयौ के पास के पास रहकर भी बाकी जीवन गुजार सकते है।इससे नई पीढी के बच्चो मे भी अच्छे सस्कांरो का निमाण॔ होगा
लेखक: बंशी लाल वर्मा
झोटवाड़ा जयपुर राजस्थान।