लघुकथा
*इंतजार था पर.....*
तिरंगे में लिपटे अपने आंख के तारे एकलौते बेटे को केशव सिंह बस टकटकी लगाएं देखें ही जा रहे थे।आंखें नम पर खुलकर रो नहीं पा रहे थे सामने पत्नी और बेटी बिलख बिलख कर रो रही थी कहें भी तो क्या उनसे।बस मन ही मन अपने बेटे से शिकायत कर रहे थे गीली आंखों को गमछे से बार बार पोछते बस एक ही बात कह रही थी।
"तुम तो अपना फर्ज निभाकर चले गए, एक बेटे का फर्ज चाहे वो अपनी मां के कोख से पैदा होने का हो, या फिर भारत माता की रक्षा का , तुमने तो जान देकर देश की रक्षा का फर्ज भी निभा दिया,तिरंगे से लिपटा अपने जिगर के टूकड़े को इन बुढ़े कंधों से कैसे उठाया जाएगा,इन बुढ़ी आँखों को तेरे आने का इंतजार था पर इस तरह नहीं, तेरी मां रो कर मन हल्का कर लेगी पर मैं क्या करूंगा ?जिन कंधों पर मुझे जाना था उसे मैं कैसे कांधा दूं मैं पिता हूं खुलकर रो भी नहीं सकता"।
पिता का दर्द कैसे समझाऊं।
निक्की शर्मा रश्मि
मुम्बई, महाराष्ट्र
niktooon@gmail.com