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मुंशी प्रेमचंद महोत्सव, कथा, दिल का संबाद-रजनीश कुमार


शीर्षक- दिल का संवाद 

मेरा दिल मुझे आज भी सवाल करता है कि तुम उससे अपने प्रेम का इजहार क्यों नहीं करते हो 

मैं दिल से कहता हूँ, "मैं अपने प्यार का इजहार करना चाहता हूँ  मगर डर लगता  कहीं मेरे इजहार से दुःखी न हो  जाए ,कहीं मुझसे बात करना बंद कर दें , कहीं वह मुझसे अपनी दोस्ती  न तोड़  दे ,कही फेसबुक और  वाट्स पर ब्लाक न कर दें  ऐसी तमाम चीजें मुझे प्यार का इजहार करने से  रोक देते  हैं ।"

दिल कहता है - तुम दिमाग की मत सुन, ये प्रेम है यहाँ अपनी बातों को कहने  की पूर्ण स्वतंत्रता है , तू कह कर तो देख ।

मै कहता हूँ - अरे ! वह सवर्ण है , मैं दलित हूँ ...,

दिल कहता है- तू यह सब सोचता है । मैं तो सिर्फ उसके  बारे में सोचता हूँ,वह जब तेरे पास आतीं है तो मुझे लगता   है मेरा खुदा मेरे पास आ रहा है ,उसकी आँखें सागर है  जिसमें मैं (दिल) अपने प्रेम  के  मोती को पाना चाहता हूँ ।

मैं कहता हूँ - दिल ,उसे पाने के लिए अच्छी नौकरी, समाजिक मुहर और उसके इकरार की जरूरत है ।

दिल कहता है-अच्छा ,काश तुम्हारी तरह मीरा, राधा, मथुरा की गोपियां ,हीर -राझा जैसे प्रेमियों ने न सोचा, वरना वो अपने प्रेम की सार्थकता को कभी नहीं पा पाते।

मैं शांत होकर ,संवाद बंद कर देता हूूँ ...!

दिल शांत देकर मुझसे कहता  है-  तुम्हारे कही? के चक्कर में ,मैं (दिल) उसके प्रेम के साहिल पर कभी नहीं पहुंच सकूँगा।

- रजनीश कुमार

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