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आखिर कब तक द्रौपदी का चीरहरण--नीलम डिमरी

शीर्षक --आखिर कब तक --नीलम डिमरी

आखिर इस कलयुग में द्रौपदी का चीर हरण हुआ, 
मानो इस जग में फिर से कौरवों का भरण हुआ। 

इक औरत की अस्मिता को 
       यूं न कुचलना तुम, 
अपनी घूरती निगाहों से, 
कोई अपशकुन न करना तुम। 
कि औरत कोई माल नहीं, 
वो किसी की बेटी है, 
दुनियावालों अब भी संभलो, 
वो तुम्हारे घर की ज्योति है। 

कायरों, अपनी आँखों के लाल डोरे, 
राह पर चलती बेटी पर न डालना तुम, 
और अँधेरे के आईने में, 
उसके अक्स को तो न छूना तुम, 
कि औरत कोई सामान नहीं, 
वो किसी की पत्नी है, 
दुनियावालों अब तो जागो, 
वो भी तुम्हारी भगिनी है। 

शरीर पर लगी हुई खरोचों को तो, 
सारी दुनिया देखती है, 
पर मन में लगने वाली खरोंच को, 
वो बेटी चुपके से सहेजती है। 
आखिर कब तक उसको एक 
पीस समझा जायेगा, 
ऐ दुनियावालों अब तो संभलो, 
वक्त तुम्हारा भी आयेगा। 

पहले बलात्कार फिर हत्या, 
उस पर ये दोहरे जुल्म क्यों, 
सभ्यता, समाज मर्यादा को तोड़कर, 
उस पर फिर ये हैवानियत क्यों,
आखिर कब तक उसको इक, 
आइटम समझा जायेगा, दुनियावालों अब नींद से जागो, 
यह तूफाँ घोर कलयुग लायेगा। 
 कहते हैं रेप कपड़ों के कारण हुआ, 
ओ दरिदों रेप तो तुम्हारे दिमाग का हुआ, 
औरत तो अपनी मान -मर्यादा से बंधी है, 
आफिस से लेकर घर की दहलीज तक, 
वह अपनी जिम्मेदारी से सजी है। 
आखिर कब तक उसको इक, 
बाॅम्ब समझा जायेगा, 
दुनियावालों अब तो संभलो, 
एक बार वक़्त तुम्हारा भी आयेगा। 

अब चीखना नहीं, सिहरना नहीं, 
न मशाल पकड़ना हाथ में, 
इस गंदगी को मिटाना है, 
जब चलेगें साथ में। 
हां जब चलेगें साथ में। 

   रचनाकार -- नीलम डिमरी 
   चमोली,,,,उत्तराखंड

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