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मुंशी प्रेमचंद महोत्सव, लघुकथा,स्वाभिमान-निशा अतुल्य


*स्वाभिमान*

रानी व्यथित थी कितना कुछ किया है इस घर के लिए ,ईंट की दीवारों को घर बनाने में अपनी सारी इच्छाएं , सारे सपने,सब सुख सभी को तिलांजलि दे दी इसलिए कि एक सुंदर संस्कृत परिवार बना सकूँ । प्रवीण का पच्चीस साल का साथ क्या छूटा ये घर ही बेगाना हो छूटने लगा ।
    नही कमजोर नही हूँ कि गलत का विरोध न कर सकूं,अपने मन के झंझावतों से जूझती उठी और घर पहुंच आवाज दी किरण एक प्याला चाय लाओ ।
  किरण झुंझलाती हुई चिल्ला कर बोली सुबह सुबह कुछ काम नही जो चिल्ला रही हो ।
  रानी चेहरे पर आत्मविश्वास रख बोली किरण घर मेरा है अगर यहाँ रहना है तो तुम्हें समय के साथ चलना होगा।
    दोनों की आवाज सुन पुरकल बाहर आया क्या माँ आप फिर शुरू हो गई 

पुरकल तुम अपना ठिकाना ढूंढ लो, ये घर मेरा है, मैं अपमान बिल्कुल भी नही सहूंगी, तुम्हे पाला है मैंने,ये सुख सुविधा तुम्हारे पिता व मेरे सपनों की नींव है समझे दृढ़ता से रानी बोली।
    पूजा के आते ही रानी ने कहा पूजा सफाई बाद में करना,पहले मेरे लिए चाय बनाओ, हाँ भाई भाभी घर बदल रहें हैं,तुम्हें सारे काम की जिम्मेदारी लेनी होगी ।
   पुरकल और किरण निःशब्द खड़े थे 

@निशा"अतुल्य" देहरादून

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