लघुकथा
-गिरगिट
'फाँसी दो.....फाँसी दो
"बलात्कारियों को फाँसी दो"
"नहीं सहेंगे....नहीं सहेंगे...
बेटियों पर अत्याचार नहीं सहेंगे"
काफी लंबा जुलूस था।युवा लड़के लड़कियों ने बाहों में काली पट्टियाँ बाँध रखी थी ।सभी के हाथ में तख्तियाँ थी,जिसमें नारे लिखे हुए थे।आक्रोश उनके चेहरों से झलक रहा था।
"बहुत बुरा हुआ"एक नौजवान नें कहा।
उसके हाथ में जो तख्ती थी उसमें लिखा था,"यत्र नारयस्ते पुजयन्ते रमन्ते तत्र देवता"
दूसरे नें कहा-"बलात्कार के बाद शव को क्षत विक्षत करना"उफ्फ!
"दरिन्दे ही थे "
"इन्हें तो फाँसी ही होनी चाहिए"
" चौराहे पर फाँसी दी जानी चाहिए,ताकि लोगों में खौफ हो"
तभी पहले यवक नें कहा,"सामनें देख"
"क्या है ....?
"वह नीली शर्ट वाली लड़की"
"अरे हाँ"
"क्या मस्त माल है यार"
"बिलकुल"
"चलो आगे चलते हैं"
दोनो भीड़ में जगह बनाते हुए उस लड़की की ओर बढ़ गए।भीड़ जोर जोर से नारे लगा रही थी
"हमें न्याय दो,स्त्री को सम्मान दो।
अंजना सिन्हा
शिक्षिका
एम ए,(हिन्दी)बीएड
आकाशवाणी राँची के गुलदस्ता कार्यक्रम में पूर्व में कई वर्षों तक कविता वाचन।
लड़े, तो मर्यादा लाँघती है वो।
ग़र आपबीती को अस्मत गँवाना कहना ही है,
तो पीड़ित नहीं, योद्धा बनेगी वो।
हमारे समाज की सोंच दोगलेपन की उदाहरण ही है ।
आवाज़ उठाना आसान है सोंच बदलना कठिन।
सटीक और यथार्थ चित्रण।
बेहतरीन लघुकथा।