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मुंशी प्रेमचंद, लघु कथा, भूखे बच्चे, डॉ लता


प्रेमचंद साहित्य सम्मान महोत्सव हेतु लघुकथा


'भूखे बच्चे

प्रेषिका- डॉ. लता (हिंदी शिक्षिका), नई दिल्ली

रोजमर्रा की तरह मैं घर से कॉलेज जाने के लिए निकली। कॉलेज काफी दूर था। पहली बस लेकर दूसरे बस स्टैंड पर पहुँची, वहाँ से लंबे सफर के लिए बस बन के चलती थी। उस दिन भी मैं बस में बैठ उसके चलने का इंतज़ार करने लगी। ड्राइवर के आते ही मैंने अपना फोन निकाला और अपनी सहेली को फ़ोन करके बस के नंबर के विषय में बताया और उससे कहा कि "मैं इसमे पहली सीट पर बैठी हूँ, तेरे बस स्टैंड तक बस पांच मिनट में पहुँच जाएगी"। जैसे ही बस उसके बस स्टैंड पर रुकी, मैंने तुरन्त खिड़की से हाथ बाहर निकाला और आवाज लगाई, 'कृष्णा'। मेरी आवाज की दिशा में उसने अपना गर्दन घुमाई और मुस्कुराते हुए जल्दी से बस में चढ़ गई। वह अंदर आकर मेरी सीट पर बैठ गई और बोली, 'और बता कैसी है तू'। मैंने कहा, 'मैं ठीक हूँ', तू सुना। उसने खुद के सही होने का जवाब दिया, 'बढ़िया'। फिर हम अपनी हर रोज की तरह अपनी किताबें निकालकर, कक्षा और विचारों पर चर्चा करने लगे। अचानक ब्रेक से लगे झटके ने मेरा सिर किताबों से उठा दिया और मैंने अन्य लोगों के साथ चिल्लाकर ड्राइवर को कहा, 'भैया कैसे गाड़ी चला रहे हो'। उसने कहा, "मैडम, सामने देखो, किसी के ऊपर चढ़ा दूं क्या, गड्डी'। मेरी नज़र सामने गई तो पाया बहुत छोटे-छोटे दो बच्चे सड़क पर हाथ मे कटोरा लिए खड़े थे। बस के आगे खड़े इन दोनों बच्चों की आंखों में ख़ौफ़ नही दिखा मुझे, बल्कि भूख के दर्द का सैलाब आसुंओं के रूप उमड़ पड़ा था। मगर ड्राइवर को उन मासूम बच्चों को देख कर दया नही बल्कि बहुत गुस्सा आया। हाँ भई, उसे इतने यात्रियों की गलियाँ जो पड़ी थी। वो बस से गुस्से में उतरा और दोनों बच्चों पर झल्लाते हुए बोला, 'गंदी नाली के कीड़े, मरने के लिए मेरी ही बस मिली तुम्हे, सड़क पर क्यों खड़े हो, तुम्हारे मां बाप क्या बच्चे पैदा करने में लगे हैं, जो तुम्हारा ध्यान नही रख सकते', बच्चे थोड़ा डर कर पीछे की तरफ हो गए, और उनमें से बड़ा दिखाई देने वाला बच्चा बोला, 'साहब माँ-बाप तो मर गए'। 'मर गए तो तुम क्यों नही मर जाते जाकर कहीं, यहाँ सड़क पर सबको क्यों परेशान कर रहे हो, अब हटो यहाँ बीच से जल्दी, मुझे ड्यूटी में देर हो रही है', ड्राइवर और अधिक झल्लाते हुए बोला। फिर वह अपनी बस में वापिस आ गया। हम दोनों सबसे आगे बैठे थे तो सब आसानी से देख पा रहे थे। बस दोबारा चल पड़ी। लोग भी अपनी अपनी बातों में खो गए। मगर मैं मानसिक रूप से वहीं उसी सड़क के बीच उन बच्चों के साथ दुर्व्यवहार होता देख निस्तब्ध रह गई।
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