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मुंशी प्रेमचंद महोत्सव, लघुकथा, मेरी सौतन-हीरल कवलानी


मेरी सौतन

“सौतन”शब्द से ही हम सब के जहन में नकारात्मक शब्द सा चलने लगता है। प्राचीन समय से प्रचलन यह था जब एक राजा की अनेक रानियाँ हुआ करती थी। पहली रानी दूसरी की सौतन मानी जाती थी। कहीं-कहीं पर रानियों में आपस में प्रेम भी हुआ करता था। 
    यहाँ पर मेरी सौतन कुछ अलग प्रकार की है। आप लोगों को यह जानकर हैरानी होगी कि मेरी सौतन मेरे पति का मोबाइल फ़ोन है। हम लोग तकनीक के विकास के साथ -साथ इन सुविधाओं के इतने आदि हो चुके है कि हमें अपने आस-पास की घटनाओं का भी इल्म नहीं रहता।हम सब टचस्क्रीन की गतिविधियों में इतने व्यस्त हैं कि हम की हम भूल जाते है कि हमारे सामाजिक और पारिवारिक दायित्व क्या -क्या है ?
      आजकल घर-घर की यही कहानी है ,किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं बचा है।बच्चों को उनका फ़्रेंड सर्कल चाहिए । ‘इन्स्टाग्राम’ और ‘टिक टॉक’ पर अपनी गतिविधियाँ अपने मित्रों से साझा करते रहते है।क्या खाया? क्या पिया? यहाँ तक कि बोर हो रहें है ,वह भी बताते है बड़े शान के साथ यह लिखकर “feeling bored”। दोस्त सुझाव देने लगते है फ़ेस्बुक पर “take a nap”, “make a drawing”, “do yoga” “cook your favourite food” आदि ।
      पतिदेव का भी यही हाल है “ludo king” पर आज मैंने इतनो को पछाड़ा । ‘Chess’ में आज इतनी बार जीता।इन सभी घटनाओं को पब्लिक में साझा करते हुए भगवान जाने कौन सा पद्मश्री अवार्ड मिलता है। ‘Netflix’ और ‘Amazon prime’ पर अपनी पसंद की पिक्चर देख ली या फिर किसी अन्य कहानी की series। नाश्ते ,लंच या डिनर के बीच का समय सारा मोबाइल ने ही तो खा लिया।मित्रों और रिश्तेदारों से भी फ़ोन पर घंटो बात करनी होती है। अब आप ही बताइए ,हुआ ना मोबाइल फ़ोन मेरी सौतन । जो मेरा समय खा जाता है ।
      मैंने अपने पति दीपक से अपनी बड़ी बेटी चेष्टा के विषय में कहा , “सुनिए ज़रा चेष्टा को गणित का एक अभ्यास करा दीजिए”। चेष्टा की ऑनलाइन कक्षा में कल टेस्ट है”। दीपक ने उत्तर दिया ,-“हाँ-हाँ करा दूँगा अभी मेरा गेम चल रहा है ,शाम को पक्का करा दूँगा”। ऐसा करते-करते शाम भी बीत गयी और रात भी तुरंत आ गई परंतु whattsap के messages और मित्रों के भेजे हुए videos देखने के चलते सोने का भी वक़्त हो गया । फिर मैंने भौंहें चड़ाकर कहा -“आपकी तो शाम अभी तक नहीं हुई , क्या कल सुबह पढ़ाओगे टेस्ट के समय”। “बस अभी पढ़ा ही रहा था” कहकर दीपक ने पढ़ाना आरंभ किया । इतने में मेरी छोटी पुत्री ‘केया’ बोली पापा आप मुझे भी पढ़ाओ” ।मैंने उसे रोकते हुए कहा -“कल दीदी का टेस्ट हो जाये और जब तुम्हारे पापा को मोबाइल से फ़ुर्सत मिल जाएगी तब वह तुम्हें भी पढ़ा देंगे”।
पहले का समय अधिक अच्छा होता था।जब इंसान इन तकनीकी सुविधाओं का ग़ुलाम नहीं था । संयुक्त परिवारों में आपस में बहुत प्यार और एक दूसरे के लिए काफ़ी समय हुआ करता था । परंतु आज स्थिति विपरीत है ।आजकल T.V ,Ipad,Mobile आदि ने तो सभी को स्वयं केंद्रित बना दिया है। जीवन अत्यंत ही दुर्लभ है इसलिए जीवन अपनों के लिए समर्पित कीजिए ।आख़िर अपनों का प्रेम बड़ी मुश्किल से मिलता है ।आपस में प्रेम बढ़ाते हुए एक दूसरे की भावनाओं की क़दर कीजिए ।आख़िर ये ‘ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा’ ।

@हीरल कवलानी

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