विधा कविता
शीर्षक - कौख और आशीष
एक आलीशान घर में हुआ,
एक बच्चे का जन्म,
नाम रखा गया, उसका, आशीष भ्रम।
चार दिन में भगवान ने,
उसका भ्रम ही मिटा दिया,
धरती से उसकी, मां को उठा दिया।
बाप ने कहॉ में करूंगा,
जिंदगी की नई शुरुआत,
कह देता हूं, तुमसे एक बात।
वो थे एक बहन दो भाई,
बाप निकला बिल्कुल कसाई,
दाग लगने के बाद बड़े बेटे को,
अपनी बहन के छोड़ दिया,
बड़ी ही रफ्तार से,
अपनी जिंदगी का ट्रक मोड़ दिया।
आया पांच छंः दिन बाद,
छोटे बच्चे को कुछ नहीं था याद,
आके जो उसने फरमान सुनाया,
गली - मुहल्ला सब धराया।
उसने एक बात कहके,
सब रिश्ता नाता तोड़ दिया,
अपने दोनो मासूम बच्चों को,
यमुना के बहते पानी में छोड़ दिया।
तभी एक मौसी ने अपनाया मां का रूप,
नहीं लगने दी, कभी जिंदगी में,
दोनों बच्चों को धूप।
तेरी ये मूर्ख मर्दांगी,
इन बच्चों को यमुना के,
पानी में नहीं डालेगी।
इन बच्चों को, मां की कौख ना,
मिली तो क्या हुआ,
उससे भी ज्यादा,
ये मौसी कि कौख पालेगी।
धीरे-धीरे होने लगे दोनो बच्चे बड़े,
कर दिए मौसी समान मां ने पैरों पर खड़े।
मौसी ने मां से बड़ कर, अपना फर्ज निभाया,
मिड़ल किलास घर में, उस लड़की का,
रिश्ता करवाया।
उस लड़की की डोर,
नोर्मल घर के लड़के से बंधि है,
और लड़का आज उभरता हुआ कवि हैं।
मौसी कि कौख कि कहानी अमर हो गई,
आपके इस छोटे, भाई, मित्र कि कहानी,
खत्म हो गई।
@कवि आशीष
नजफगढ़, नई दिल्ली