कविता---
--गोपाल मिश्र, सिवान, बिहार
हार जाता हूं मैं स्वार्थ समर,
कदम बढ़ते हैं आगे की ओर,
किंतु आवाज आती है गुहा से
ठहर जा यह नहीं है तेरी ठौर,
रुक जाते हैं कदम फिर से,
उठता है द्वंद्व एकफिर से
सुनाई देती है एक धिक्कार,
कहता है स्वार्थ किसे सुन रहा,
क्यों तू रूक रहा है बेकार,
जो दिखाई नहीं देता आंखों को
कान सुनता नहीं जिसे
क्यों कर रहा समय बेकार,
खुद को नष्ट कर रहा बार-बार
आगे बढ़ हूं तेरे साथ,
मैं ही हूं तेरा स्वार्थ,
मत पड़ द्वंद्व के चक्कर में,
यह है अवरोध जो तेरा,
होने नहीं देता सपना साकार,
आत्मा की सुनेगा तो,
तू बढ़ नहीं सकेगा आगे,
तू अपने स्वार्थ की सुन
लेगा हर सपना आकार,
नहीं भय हमें है अपनों का
न है भय उस समष्टि का,
जो है नहीं हमारा कभी,
खींचता है टांग सदैव,
नीचे हमें गिराने को,
जो बन नहीं सकता भाव कभी
जीवन में उभरे अभावों का
फिर भी डर जाता हूं खुद से,
कदम लड़खड़ा जाते हैं,
अंतरात्मा हो जाती है खड़ी,
समझा जाती है तर्क- वितर्क,
हार जाता हूं मैं स्वार्थ समर |
-----गोपाल मिश्र, सिवान, बिहार