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मैं सोच रहा कुछ कर जाऊं क्या गलत किया जो डर जाऊ_permi

कुछ कर जाऊं 

मैं सोच रहा कुछ कर जाऊं
 क्या गलत किया जो डर जाऊ।
अब वक्त यही कहता हमसे,
अपनों के लिए  सुधर जाऊं।।

बचपन यौवन का ज्ञान नहीं
कब बीत गया क्या, भान नहीं।।
गर ठेस  किसी ने पाया तो
सोचा समझा अपमान नहीं।।

अपनी ही आँखों से मैंने
पत्थर को पिघलते देखा है।
विश्वास जनों को भी मैंने,
खुद जहर उगलते देखा है।।

देखा है अपनी आँखों से
जो ज्ञान की बातें बांच रहे।
वे भी हाथों में खंजर ले
अपनी किस्मत को जाँच रहे।।

एक बात समझ आई मुझको
मैं जन्म लिया हूँ सहने को।
इस छल प्रपंच की दुनिया मे
कुछ रहा न बाकी कहने को।।

मैं भटक रहा कुछ पाने को,
पर अक्सर खोते जाता हूँ।
यहाँ देख रूप इन्सानों का
मैं हर पल रोते जाता  हूँ।।

मैं प्रेम नाम का राही हूँ,
पर प्रेम कहाँ से पाऊंगा।
इस स्वार्थ भरे  नगरी से मैं,
कब प्रेम नगर को जाऊंगा।।

हिम्मत तो हार नहीं सकता
दुनिया चाहे कुछ भी कर ले।
मैं सत्य का साथ न छोडूंगा
भले ही प्राण मेरे हर ले ।।

मैं सीख लिया उन विरों से
जो आन के खातिर जान दिए।
अपनी माता की रक्षा को
जो हँस कर अपने प्राण दिए।।

मैंने भी कदम बढाया है
कुछ देश के खातिर करने को।
जो जात पात की खाई है
उसको अब मिलकर भरने को।।
      
                             जय हिन्द  जय भारत

कवि------- प्रेम शंकर प्रेमी  (रियासत पवई )

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