1.
सब कुछ सहते जाते हैं
परवाह नहीं उन लोगों का,
जो कुछ भी कहते जाते हैं।
ईश्वर भी साक्षी है इसका,
हम सबकुछ सहते जाते हैं।।
औरों पर दोष लगाने का,
हरपल ही जिसका धंधा है।
उसपर भी जरा विचार करें,
जो मन का कितना गंदा है।।
मैं देख रहा इन आँखों से,
जो गलती कर इतराते हैं।
उनके पक्ष में लोग यहाँ
सत्य से मुंह छुपाते हैं।।
बोलने का जिसे सहूर नहीं,
वो ज्ञान का पाठ पढ़ाता है।
नेक राह चलने वालो के,
बीच में टाँग अड़ाता है।।
दुख को गर मैं प्रकट करूँ
कहते इज्ज़त खोते क्यों।
लोगों में अपने दुखड़े को
लाकर हरदम रोते क्यों।।
अपनी खुशी लेकर आऊँ,
कहते हैं इठलाते हो।
दिखलाते हो अपने को
इतना क्यों इतराते हो।।
चुभता है क्यों लोगों को,
प्रकट करुं गर बातों को।
मुक रहकर भूल न सकता,
जुड़े हुए हर नातों को।।
सबका है सम्मान बहुत,
दिल से दुआ ही दुँगा मैं।
गाली भी गर मिले किसी से
प्रेम से हँस कर लूँगा मैं।।
प्रेम नाम का राही हूँ मैं,
प्रेम का भाषा सीखा है।
दिल से निकली बातों को
खुद से मैंने लिखा है।।
2.
जीवन के चाल
जहाँ पे खिलते फूल सुहाने
कंटक भी मिलते विकराल ।
जिवन के सुन्दर घडियों बीच
मौत है आती बनकर काल ।।
मन मंदिर को बेध रहे हैं
तरह तरह के नये सवाल ।
बदल गया है रूप धरा का
बदल रहे जीवन के चाल ।।
पथ की है पहचान नहीं अब
भले बूरे का ज्ञान नहीं अब ।
उस मिट्टी पर दावा करते
जिसमें कोई जान नहीं अब ।।
दिख रही जो सुन्दर काया
छुपी हुई है उसमे माया ।
जिसने इसपर ध्यान लगाया
जग मेंं अपना नाम गंवाया ।।
सबको समझें एक समान
चाहे गोरा हो या श्याम ।
एक इश्वर की सब संतान
रख लें मन मे ऐसा ध्यान ।।
रूप छोड़कर गुण को जाँचे
तन में छुपा उस मन को आँके ।
स्वर्ण सुराही काम न आती
मृदा घडा़ जिस जल को पिलाती ।।
चाहे जैसा रूप हमारा
गति एक सी होती है ।
जीस मिट्टी से बनती काया
एक दिन उसमें खोती है ।।
गोरा-काला ऊंच नीच और
लेखा जोखा हर धर्मों का ।
बन गई है पहचान धरा पर
यहाँ कलुषित सब कर्मो का ।।
चिता कभी न प्रश्न उठाती
मरा जो मानव कैसा था ।
कब्र सुलाती बिन पुछे ही
जो भी मानव जैसा था ।।
फिर आपस मे भेद क्यों करते
धरा पर जीवित हर इन्सान ।
जात पात और रंग रूप बीच
खोते हैं क्यों स्वयं ईमान ।।
कवि ----- प्रेमशंकर प्रेमी (रियासत पवई )