विनाश और सृजन
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हवाओं के जोर से,
छितरा गये फूल सारे,
बिखर गयीं पतियां सारी,
थपेड़ों के खौफ से ।
विनाश और सृजन,
प्रकृति का मूल है,
नवल सुकोमल पते,
फूल, लद गये फिर से।
फिर से बरसात हुई,
झमाझम बरसा पानी,
लहलहाने लगे तरूवर,
मस्त मगन हो के ।
भूलकर विगत पिछली,
पतझड़ की सारी बातें,
महकने लगे वन - कानन,
सुरभित हो फिजाओं में ।
खग वृन्द फिर से
नीड़ अपना बनाने लगे,
आंगन बगिया में पक्षी,
फिर से चहचहाने लगे।
सूख जाते नदियां सरोवर,
जेठ के आते आते,
सावन की फुहार पड़ी,
फिर से उफनाने लगे ।
मानव निराश ना हो,
अतीत अपने को सोचकर,
जीवन है उत्थान-पतन,
संघर्ष कर आगे बढ़ ।
सुषमा सिंह
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( स्वरचित एवं मौलिक)