बेरोजगारी
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सूनी सूनी आंखों में,
सपने हजार लेके,
भटक रहे युवा आज के,
दरबदर रोजगार के लिए।
मन में उम्मीद आश,
रोजगार की तलाश,
कभी यहां, कभी वहां,
लेकर डिग्रियां अपने हाथ।
बढ़ती जाती बेरोजगारी,
घटती जा रही नौकरी सरकारी,
लानत मलानत सहते,
रिश्र्वत की मांग भारी।
मां बाप ने कर्जा ,
लेकर शहर में पढ़ाया,
जर जमीन गिरवी रख,
उच्च शिक्षा दिलवाया ।
करें क्या अब जतन,
कुछ समझ ना आए,
व्यर्थ लग रहीं डिग्रियां,
बेकारी की मार भूखे सो जाएं।
अंतर्द्वंद्व मचा है मन में,
पिता से क्या कहूंगा , कि
भूखे पेट चार दिन ,
सोया हूं फुटपाथ पे।
पीडा उस व्यथित हृदय की,
बेरोजगारी की बढ़ती तादाद,
पढा लिखा युवा बेकार,
समस्या है विकट विकराल।
सुषमा सिंह
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( स्वरचित एवं मौलिक)