शीर्षक - *भारत भूमि वंदन - शत्रु द्रोह मर्दन*
भारत भूमि का कण-कण हमें प्राणों से प्यारा है....
एक एक रज कण में सुवासित गौरव गर्व हमारा है....
भारत कीर्ति कथा, वैभव गढ़ने में बीते मेरा जीवन सारा है
रक्त की बूंद-बूंद में, रोम-रोम में बना तेरा ही आशीष सहारा है
कोटि सूर्य सी प्रभा तुम्हारी ,निशानाथ नित वंदन करें तुम्हारा
रत्नाकर नित चरणोदक लेते , हिमालय सजाये किरीट तुम्हारा
धन्य धन्य हो जाते मलय मारुत के झोंके ,पा कर स्पर्श तुम्हारा
स्वर्ग के सभी देव तरसते , करने आॅ॑चल का अमृत पान तुम्हारा
पर ! माॅ॑ हमारे ही कुछ भाई बंधु की करनी झुका रही है शर्म से शीश हमारा.......
माॅ॑! आज पीड़ा से बहुत व्यथित हूं , तेरे ही कुछ कपूत बन रहे हैं शत्रु सहारा
छद्मवेष धारण किये हैं कायर ,बन गया है उनका बल ,अब छल छद्म सहारा
हृदयों में फफक रही चिंगारी , शिराओं में उमड़ घुमड़ रहा है रक्त हमारा
उठ रही उदधि सी अंतर ज्वाला , घुमड़ घुमड़ रहा है आक्रोश हमारा
साक्षी है योगेश्वर का गीता ज्ञान , हमारे अंतरतम का मोह तोड़ दो
अपने भी हों अगर अधर्म पर , राष्ट्र धर्म की रक्षा हित जीवन रथ उनका मोड़ दो
जो ख़रोंच लगायेगा तुझ पर , बदला लूंगा शीश काट काट कर
अट्टहास करे जो तुझ पर प्राण हरूंगा ,छाती क्षार क्षार कर
आस्तीन के जो नाग बने हैं जलाऊंगा पावक प्रचंड में कुचल कुचल कर
जो श्वान घूम रहे हमारी मखशाला में , उन सबकी हवि बनाऊंगा खोज खोज कर
भारत को जो ललकारेगा , वह निश्चय ही अपना काल बुलायेगा
हमारा अद्भुत अपराजेय रुधिर है , दुश्मन रण में त्राहि माम की चीख मचायेगा
भारत का कण-कण आत्म आहुति देकर , राष्ट्र यज्ञ वृहद रचायेगा
प्रज्वलित भयंकर भीषण ज्वाला से, तलातल से अंबर तक शत्रु कहां बच पायेगा
माॅ॑ तमस हटा दो जयोति जला दो , कपूतों को आत्म ज्ञान विवेक से भर दो
काले मेघ हटा दो माॅ॑ !शक्ति विजय का शंख बजा कर, हमें अमर कर दो
हाथों में अरुण केतु थमा दो , पगों में अकूत अपार प्रभंजन भर दो.....
शत्रु का शोणित पीने दो माॅ॑ , विजय श्री का अलौकिक विहंगम वर दो.......
भारत भूमि का कण-कण हमें प्राणों से प्यारा है.....
एक एक रज कण में सुवासित गौरव गर्व हमारा है.....
🇮🇳 वन्दे मातरम् 🇮🇳
चंद्रप्रकाश गुप्त "चंद्र"
अहमदाबाद, गुजरात
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