बसंत ऋतु
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ऋतु ने लिये करवट,
बढी फिजाओं में रंगीनी,
रति रस हवा सुरीली,
मादक बसंती नशीली।
वन उपवन ,सुमन,
झूमे हो मस्त मलंग,
व्याकुल उन्मत्त मन,
बौराये पागल बसंत।
सजी नवयौवना जैसी,
श्रृंगार सज संवर कर,
विहंस रही वसुंधरा,
पीली चूनरी ओढ़कर।
मंजरों से लद गयीं,
भीनीं खुशबू अमराईयां,
शोर मचाए बसंतदूती,
शाख डाल डालियां।
प्रिय प्रियतमा का मन,
टेसू जाफरानी अबीरी,
बढी देह दहकन,
सिहराए आहट फागुन की।
बोझिल राजीव नयन,
निहारे राह अपलकन,
खिला रुप यौवन,
शोखियों से भरा मन।
मनमौजी अल्हड़ झकोरा,
झूले प्रियल मन हिंडोला,
धड़कने सुनाए रागिनी,
हुलसाए प्रिय बांह कामिनी।
सुषमा सिंह
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( सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मौलिक)
बहुत सुन्दर।