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सुषमा सिंह की दो कविताएं_sushma singh

1
परिवार
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   बिखर   ना   जाए    कहीं,
   सदियों की यह अवधारणा,
   भारतवर्ष  को  छोड़  कहीं,
   मिलता जिसका अस्तित्व ना।

   सहयोग  साहर्चय है आधार,
   प्रेम  की  भावना  से  बंधा,
   परस्पर विचार और व्यवहार
   समुदाय की इकाई  परिवार।

   जहां सिर्फ पति पत्नी नहीं,
   मां    बाप    बहन    भाई
   बुआ  भाभी  चाची   ताई,
   मुस्कुराते हुए रसोई बनायी।

   सुख  -दुख  में   सब  साथ,
   कुटुम्ब   पड़ोसी   नातेदार,
   मिलजुल  कर  रहते  साथ,
   एक दूसरे पर लुटाते  प्यार।

   अंधानुकरण   की  दौड़  में,
   विद्रुप   हो    रहा   समाज,
   जो  जड़  था  कभी हमारा,
   उस  पर  करो ना  आधात।

   हिन्दुस्तान का सुदृढ़ परिवार,
   सहेजो  सवारों     मन   से,
   संगठन का अद्भभूत  मिशाल,
   बिखर ना  जाए  कहीं दंभ से।
                         सुषमा सिंह
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2
बजट
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  बजट  के  डंडे  फिर  से पड़े  हैं,
  मध्यम  वर्ग  औंधे  मुंह  गिरे  हैं।

  लोक  लुभावन   लेकर  पिटारा,
  हरेक के हाथों पालिथिन थमाया।

  साल भर  का  झूनझूना  दे  गये,
  जनता  को भरमा कर  चले  गए।

  सड़क  शिक्षालय की होगी भरमार,
  किसान फिर से मलते रह गये हाथ।

  दस हजार करोड़ का चूना लगा गये,
  किसानों पर फिर चाबुक बरसा गये।

  बुजुर्गो  की  फिर हुई है बल्ले बल्ले,
  युवाओं  पर  जम  के  कोडे  बरसे ।

  रहनुमाओं  का  प्रेम  भी  कितना,
  सधा  और विचित्रताओं से पूर्ण है,

  मंचों  पर  अब    गद्दे   दौड़ते,
  घोड़े की कुलाचों  पर बन्धन है।

                सुषमा सिंह
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        ( सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मौलिक)

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