गजल
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जिक्र मुनासिब नहीं समझता हूं मैं,
मात्र गमों का इक पुलिंदा हूं मै।
इश्क में इस कदर बरबाद हुआ,
सब कहते चलता-फिरता मुर्दा हूं मैं।
आवारगी में कटते हैं दिन,
रात माशूका माशूका करता हूं मैं।
इश्क के नशे में डूबा रहता हूं,
उसकी इक झलक खातिर जिंदा हूं मैं।
दिल तो घायल एक परिंदा है,
उनकी यादों के मरहम से जिंदा हूं मैं।
हूं इश्क के मंदिर का ऐसा दीपक,
हर लौ से उनके लिए दुआ करता हूं मैं।
इश्क एक दरिया में ना होता पानी,
हुश्न की आंच में जलता हूं मैं।
दीए पतंगें की प्रीति पुरानी,
जल मर कर आशिकी निभाता हूं मैं।
सुषमा सिंह
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( सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मौलिक)