पत्नी नहीं पत्थर की मूरत
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मैं पत्नी का फर्ज निभाऊं
पति जो बनकर आप रहे।
पत्नी नहीं पत्थर की मूरत
सबकुछ देख चुपचाप रहे।।
हर पत्नी का पति चरण में
मिला हुआ स्थान रहे।
गृहलक्ष्मी के रूप में उसको
मिलता मान- सम्मान रहे।।
आँच नहीं आने देगी वो
घर की मान प्रतिष्ठा पर।
होगा जो संदेह नहीं कोई
गृहलक्ष्मी की निष्ठा पर।।
पत्नी कठपुतली है नहीं
जिसे कोई नाच नचाएगा।
दाग लगे जो इज्ज़त पर
ऐसा कोई काम कराएगा।।
सुख दुख जो में साथ निभाती
पति की छाया बनकर वो।
पति प्राण खातिर लड़ जाती
बनी सावित्री यम से जो।।
बड़े बुढ़ो की सेवा कर वो
अपना फर्ज निभाती है।
अपने कर्मो के बल पर वो
घर को स्वर्ग बनाती है।।
पति जो ध्यान नहीं रखता
निज पत्नी के अरमानों का।
करे कत्ल उसके सपनो का
उसके मान सम्मानो का।।
पत्नी का जीवन नर्क बना
करता है उसे प्रताड़ित जो।
मानव रूप में इस धरती पर
रहने वाला शैतान है वो।।
अपनी मर्यादा को भूल जो
रखता पति और ध्यान कहीं।
पत्नी को वस्तु जो समझता
उससे पतित इन्सान नहीं।।
पत्नी घर की शोभा होती
मर्यादा का रूप है वो।
जबतक कोई अनर्थ न होगा
तबतक घर में चूप है वो।।
आप मेरी इन बातों से
होंगे कभी अनभिज्ञ नहीं।
पत्नी अर्धांगिनी होती है
पति की असली मित यही।।
छाया बनकर रहूं सदा मैं
रहें धरा पर आप जहाँ ।
सदा सुहागन रहना चाहूं
बनकर आपके प्राण यहाँ।।
कवि -- प्रेमशंकर प्रेमी ( रियासत पवई )औरंगाबाद