*धरती की भगवती*
दिव्य लोक से उतर धरा पर,
पीड़ितों के दुख हरने आई।
डोनेशन से नाम लिखाकर,
मेडिकल से वो पढ़कर आई।
धरती की यमदूतनी कहूँ या,
गर्भस्थ शिशु की सौतेली माई।
गर्भ में पल रही थी बेटी,
उसे धुलाई के लिए बुलाई।
दूसरी बार अल्ट्रासाउण्ड किया,
लड़का होने की खबर सुनायी।
ऐसी बात सुन मेरी अर्द्धांगिनी,
मन -ही -मन फूले नहीं समाई।
हर महीने जाँच के नाम पर,
होती उसकी खूब कमाई।
नौ माह तक दवा चलाकर,
दर्द उठा तो पुनः बुलाई।
सामान्य रूप से जनमता शिशु,
दर्द रूकने की दवा पिलायी।
बोली ऑपरेशन करना होगा,
तीस हजार का शुल्क सुनाई।
बहुतों के पास हाथ पसारा,
मेरे हाथ असफलता आई।
हृदय काँप रहा था मेरा,
पत्नी की तड़प से आई रुलाई।
टिवशन जहाँ पढ़ाया करता,
सरकारी नर्स दीदी देखने आई।
उन्होंने कहा ठीक है बच्चा,
सदर अस्पताल उसे पहुँचाई।
नर्स दीदी की ड्यूटी खत्म हुई,
पर चारा नहीं था कोई भाई।
आधी रात को दर्द बढ़ा तब,
दूसरी नर्स को मेरी सास जगाई।
आना कानी करके वह सो गयी,
उठकर आने से वह कतरायी।
मेरा अनुनय विनय नहीं मानी,
मेरी क्रोधाग्नि को और बढ़ाई।
मैंने कहा, अब फोन लगाओ,
डी .एम. के स्टोनो हैं मेरे भाई।
इतना सुनकर नर्स फिर दौड़ी,
सासु माता से गिड़गिड़ायी।
साधारण हुआ शिशु का जन्म,
नर्स दीदी फूले नहीं समायी।
खुशी में चूमती है बच्चों को,
और माँगती उपहार मिठाई।
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यह मेरी मौलिक एवं स्वरचित कविता है।
विजय कुमार,कंकेर,औरंगाबाद