चरवाहा
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आँखें उसकी बड़ी बड़ी
मूँछे दिखती खड़ी खड़ी।
फटे पूराने कपड़े उसके
छड़ी उसके हाथ अड़ी।।
कंधे पर गमछा रखता है
पाँव हरपल नंगा रहता है।
धूप हो या बारिश सर्दी हो
मन उसका चंगा रहता है।।
बड़े मस्तक घुंघराले बाल
भद्दे होंठ और पचके गाल।
हाथ पैर हैं सूखे हुए पर
बड़ा तोंद मतवाला चाल।।
फटी एड़ियाँ बहता खून
कम न होता उसका धून।
पशुओं के बीच रहता है
तरह-तरह का सपना बुन।।
धँसी हुई आँखें हैं उसकी
मुँह से लार टपकता है।
चना चबेना खाकर दिनभर
इधर उधर भटकता है।।
पशुओं का चारण करवाता
चरवाहा कहलाता वो।
फटी आवाज में गाना गाकर
खुद का मन बहलाता वो।।
कभी चट्टानों पर सो जाता
कभी पेड़ की छाँव में।
संध्या बेला वो लौट जाता
ले पशुओं को गाँव में।।
कवि----प्रेमशंकर प्रेमी (रियासत पवई )औरंगाबाद