भिक्षुक
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शौक नहीं उसके अन्दर,
पेट भरने का इच्छुक है।
द्वार -द्वार भटकता रहता,
कहलाता वो भिक्षुक है।।
हाथ कटोरा थामे चलता,
पीठ पर गठरी बाँधे चलता।
एक हाथ में डंडा लेकर,
भोजन रोज जुटाने चलता।।
अपना नहीं बसेरा उसका,
कहीं जमाता डेरा है।
जहाँ चाहता रात बिताता,
होता वहीं सवेरा है।।
भीड़ भरे जगहों पर भिक्षुक,
अक्सर देखा जाता है।
लोगों के बीच घुम-घुमकर,
दो-चार पैसा पाता है।।
गाँवों में गठरी चावल का,
लेकर पीठ पर चलता वो।
कभी यहाँ तो कभी वहाँ,
डेरा हर दिन बदलता वो।।
फटे पुराने कपड़ो मे वो,
लिए विवशता आँखों में।
नंगे पाँव ही बढ़ते जाता,
कठोर कँटीले राहों में।।
कभी -कभी सोना पड़ता है,
उस दुखिया को खाली पेट।
घुमता फिर भी हो न पाता,
अन्न-दाने, भोजन से भेंट।।
किस्मत का वो मारा होता,
भिक्षुक बडा़ बेचारा होता।
फटेहाल हालात हैं उसके,
किसी तरह गुजारा होता।।
प्रेमशंकर प्रेमी (रियासत पवई )औरंगाबाद