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महाराणा प्रताप_Sushma Singh

महाराणा  प्रताप
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   एक  ऐसा  नाम  जहां  वीरता  भी  नत 
   हो जाती है, स्वाभिमान की ऐसी ज्वाला
   जो  आज  भी धधक  रही  है ।भारत 
   बर्ष  का जिसे  दूसरा  राम कहा जाए तो
   शायद अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि  राम  पुरुषार्थ  का ही दूसरा नाम  है।
 लेकिन  इस  राम  के भाई  भरत  और
   लक्ष्मण  नहीं  थे, और विभीषण  भी 
   नहीं  थे, क्योंकि राक्षस के  खेमे  से राम
   शरण  में आया  व्यक्ति  तो विभीषण हो
   सकता  है , लेकिन  राम  के शरण  को
   छोड़कर  जाने वाला  तो  कृतघ्न  ही
   कहलाएगा।  तो  आज मैं  राणाओं  के
   उत्तराधिकारी धीर,वीर साहसी  पराक्रमी
   और  दुश्मनों  के  साक्षात्  यम महाराणा
   प्रताप  की  चर्चा  कर  रही  हूं ।
                  
                 महाराणा प्रताप  का जन्म
    नौ मई  पन्द्रह सौ चालीस  को  उदय
    सिंह  और जयवंता बाई  के प्रथम  पुत्र
    के  रुप में  हुआ था ।प्रताप  की 
    प्रारम्भिक  शिक्षा दीक्षा  कुम्भलगढ  में
   ही  हुई। परम्परागत शिक्षा और  शस्त्र
   शिक्षा  दोनों में  ही प्रताप  अद्वितीय थे।
   बचपन  से  ही प्रताप  का अधिकतर
   समय  महल  से दूर प्रजाजनों  के साथ
   व्यतीत होता था, प्रताप मिलनसार 
   प्रवृत्ति के थे,यही  कारण है कि सारी
   प्रजा  उनपर जान छिड़कती थी। 
   बाल्यावस्था  से ही प्रताप पहाड़ी से
   कूद जाना,तीरंदाजी का खेल खेलना
   यह  सब  उनके  दिनचर्या  में शामिल
   था। मेवाड़  की जनता इनके मृदु
   व्यवहार  एवं शक्ति सामर्थ्य  से परिचित
   हो  चुकी थी, क्योंकि  राजा उदय सिंह
   के रहते इन्होंने कई  युद्धों में  भाग  लिया 
   था एवं  विजयश्री  दिलवायी थे। अतः
   प्रजा  इन्हें अपने भावी  राजा  के रूप 
  में  देखने  लगी थी।

                   राणा  उदय सिंह  की मृत्यु
   फरवरी पन्द्रह सौ बहत्तर में  हुई। राणा
   उदयसिह रानी भटियानी के कहे में
   आकर , दुर्बल जगमाल को राणा बनाने
   की वसीयत लिख  दी।कुंवर प्रताप पिता
   की आज्ञा का आदर  करते  हुए चुप रहे
   और  मेवाड़ से जाने  का  निश्चय  किया
    परन्तु  मेवाड़ के सामंत, जागीरदार
   और  सोनगरा क्षत्रियों  को  यह बात
   नागवार गुजरी और  हठ करके उन्होंने
   महाराणा  का  राजतिलक कर  दिया।
   सोनगरा के  राजपूतों  का स्पष्ट कहना
   था कि क्या  अकबर जैसे क्रूर शासक
  का मुकाबला यह  कायर जगमाल  कर
  पाएगा? अतः  गोगुंदा में बतीस बरस की
  आयु में उनका अठाईस फरवरी पन्द्रह
  सौ बहत्तर को राज्यारोहण कर दिया गया
  ताजपोशी  होते  ही महाराणा ने सबसे
  पहले  प्रदेश  के लुहारों को तलवारों और
  भाले के निर्माण करने  का आदेश दिया।
  क्योंकि  उन्हें  पता था कि विस्तारवादी
  अकबर  अपनी नीतियों के तहत उनपर
  आक्रमण  जरुर  करेगा।
  
                   मेवाड़  की  राजगद्दी से
    वंचित जगमाल अकबर के खेमे में चला
   गया। उसका बड़ा भाई शक्ति सिंह पहले
   से ही अकबर के दरबार में बैठा हुआ था
   जैसा कि प्रताप को अंदेशा था अकबर
   शान्ति से बैठने वाला नहीं था, अतः 
   राणा ने मुगलों के विरुद्ध  युद्ध हेतु
   समस्त तैयारियां गुप्त रुप से पूर्ण कर 
  ली। अकबर चाहता था कि महाराणा 
  उसकी अधीनता स्वीकार कर लें क्योंकि
  महाराणा की शक्ति से वह वाकिफ था।
  अतः हल्दी घाटी युद्ध से पूर्व अकबर ने
  महाराणा के पास लगातार चार संधि
  प्रस्ताव भेजा। प्रथम  अपने विश्वासपात्र
  कोरची(पन्द्रह सौ बहत्तर) तत्पश्चात 
  कुंवर मान सिंह,(जून पन्द्रह सौ तिहतर)
  फिर आमेर  के राजा भगवंत  सिंह और
  अन्त ‌मे अपने विश्वसनीय दरबारी राजा
  टोडरमल को, परन्तु स्वाभिमानी  प्रताप
  का सिर झुकाना  संभव न था।

                अतः  अकबर मानसिंह के
   नेतृत्व में बड़ी सेना और भारी तोपखाना 
   महाराणा से युद्ध हेतु रवाना किया।मान
  सिंह ने खमणोर  गांव के समीप बनास 
  नदी  के किनारे डेरा डाला। महाराणा भी 
  अपनी सेना तैयार कर  गोगुंदा से चले
  और तीन ‌कोस  की दूरी  पर आ ठहरे।
  प्रताप की सेना जहां पड़ाव डाली उसके
   दूसरी तरफ एक संकरी घाटी थी जिसमें
   से घुड़सवार सैनिक तीन ज्यादा नहीं
   निकल सकते थे। मुगलों के पास भारी
  तोपखाना और ‌बंदूके थीं, अतः मैदान से
  लड़ाई महाराणा के लिए भारी पड़
  सकती थी फिर मुगलों का सांख्यबल
  भी चौगुना था राणा के पास बीस हजार
  तो मुगलों के पास अस्सी हजार सेनाएं
  थीं। युद्ध कला के सर्वश्रेष्ठ पारखी प्रताप
  को  मैदान में उतारना स्वीकार नहीं था
  और वही पहाड़ी पर डेरा डाल दिए।
  प्रताप ने अपने हरावल सेना की कमान
 अपने मित्र वीरवर हकीम खान को सौंपी।
  खुद अपने प्यारे  चेतक को  साथ लिया
  और यहीं पहाड़ी के नीचे  जिसे हल्दी
  घाटी के नाम से जाना जाता है ,वह भयंकर एकदिवसीय युद्ध शुरू हुआ जो
  हल्दी घाटी और खमणोर ( अठारह ‌जून
  पन्द्रह सौ छिहत्तर) के बीच में हुआ ।
  प्रताप खुद सैन्य संचालन कर  रहे थे ।
  दूसरी तरफ  हकीम खान। युद्ध इतना
  भयावह था कि चारो तरफ हाहाकार
  मंच गया । सूर्य की प्रचंड किरणों के बीच
  लपलपाते तलवार आग उगलते गोले
  मर  मिटने पर आमादा राजपूत रण बांकुरों ने दुश्मनों को धूल चटा दिया।
 महाराणा  की हरावल सेना का सेनापति
  हकीम खां साक्षात् यम का रुप धारण 
  कर मुगलों को खदेड़ते हुए बनास नदी
  के उस पार तक ले गया ।मुगल सेना भाग खड़ी हुई। लेकिन इसी समय मेहतर खां यह अफवाह फैला दिया  कि अकबर  स्वयं आ रहा है तो मुगल सेना मैदान में रुक गयी । चेतक इस युद्ध में अकेले
  ही  राणा को लेकर दौड़ता हुआ ‌मान 
  सिंह के समक्ष पहुंच गया,और उसके 
  हाथी पर पैरों से प्रहार किया, तुरंत राणा
  ने मानसिंह पर निशाना साधा, जिसे वह
  हौदे में घुस अपनी  जान बचाई परन्तु भाला महावत को चीरते ‌हुए हाथी के हौदे
  के अन्दर समा गया। हाथी के सूंड से बंधी तलवार से चेतक के पैरों में गहरे
  गांव हो गया। अब तक महाराणा भी बुरी
  तरह धायल हो चुके थे,झाला सरदार ने
  स्थिति की गंभीरता को भांपते  हुए मेवाड़ का  राजचिन्ह स्वयं धारण किया,
और राणाजी से  विनती कर युद्ध क्षेत्र से
 वापस भेज दिया। झाला सरदार  की कद काठी में महाराणा प्रताप से मिलती जुलती  थी। युद्ध की भयावहता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस एकदिनी युद्ध में सत्रह हजार सैनिक मारे गए थे।
 उधर हकीम  खां मुगलों से लड़ता हुआ खेत रहा लेकिन मरने के बाद भी उसकी मुट्ठी से तलवार नहीं छूटी । अंतिम समय तक तलवार  पर  उस वीर की पकड़  मजबूत बनी रही।  और अन्त में उन्हें तलवार समेत  दफनाया  गया। राणा प्रताप के मुट्ठी भर  वफादारों  ने मुगलों
 को जबरजस्त  शिकस्त दी। महाराणा
अपने  राज्य का अस्सी प्रतिशत भू भाग
 पर कब्जा कर‌  लिए। लेकिन महाराणा
  की आर्थिक स्थिति कमजोर हो रही थी।
 इसी बीच भामाशाह ने पच्चीस लाख रुपए और बीस हजार अशर्फियां महाराणा
प्रताप को भेंट स्वरूप प्रदान किया राणा 
फिर से  दूने  उत्साह के साथ  देश सुरक्षा
में निमग्न हो गये। अजेय राणा ने अंततः
बादशाह की बादशाहत को पैरों तले रौंदा
डाला। इस युद्ध के बाद महाराणा के कीर्ति
गीत  दिल्ली और  आगरा तक गूंजने लगे।
अकबर सदमे में था और  आहत भी। महाराणा से वह इतना खौफ खाता था कि
कभी  किसी युद्ध में वह स्वयं नहीं आया
जबकि अन्य युद्धों का संचालन वह करता था। फिर भी वह हार मानने वाला नहीं था
अतः एक  बार फिर उसने खानखाना को
एक बड़ी सेना के साथ भेजा ,इस बार उसका मुकाबला अमर सिंह के साथ हुआ
यह लड़ाई आगे नहीं बढ़ सकी क्योंकि
वीर अमर सिंह ने खानखाना को बुरी तरह
मात दी । 
                    सुषमा सिंह
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(सर्वाधिकार सुरक्षित)

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2 Comments
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ARVIND AKELA said…
वाह,बहुत हीं सुंदर आलेख।
जय हिंद।
Sushma Singh said…
धन्यवाद भाई साब 🙏