एक कविता : क्या प्रभु पर विश्वास नहीं है?
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बाबा तुलसी घर को आए।
फिर अपनी ससुराल सिधाए ।
गांव के बाहर डेरा डाले
नाला झोली मूर्ति संभाले।
भोजन का जब अवसर आया।
एक गृहस्थ घर से आटा लाया।
बाबा ने तब आग जलाया उस पर एक टिक्कड़ लगाया।
पहले प्रभु को भोग लगाया
और स्वयं फिर अपने पाया ।
कहीं से रत्ना वहां पर आई कर प्रणाम पूछी कुशलाई।
सब कुछ समझा सब कुछ जाना
किंतु न तुलसीदास ने पहचाना।
रतना ने एक पोटली देखा
लिया संत का लेखा-जोखा
बाबा इस गठरी में क्या है कहा संत इसमें आटा है।
रत्ना ने तब उनसे पूछा
रहे कभी क्या हो तुम भूखा।
प्रभु सब को भोजन देता है
फिर क्यों मानव संग्रह करता है।
कल मिलने की आस नहीं है?
क्या प्रभु पर विश्वास नहीं है?
आज दिया वह कल भी देगा।
खोज खबर वह सब की लेगा।
संग्रह की आदत अब त्यागो
राम चरण में प्रीति लगा लो।
बिन विश्वास न मिलते राम।
चलती हूं ,हे संत प्रणाम।।
सियावर रामचंद्र की जय।।
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डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेद्वी शैलेश
वाराणसी ९४५०१८६७१२