हास्य कविता
*वाटिका में हनुमान*
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अपने गाँव में देखा नाटक,
पर्दा उठा खुला था फाटक।
हनुमान जी लंका पधारे,
कितने दैत्यों को संहारे।
रस्सी टंगी थी बंधा किनारे,
वाटिका पहुँचे उसी सहारे।
हनुमान पहुँचे धीरे -धीरे,
सीता बैठी वहीं पर गिरे।
चोट लगी तो संबाद भुलाए,
मन ही मन सबको गरिआए।
बोली सीता तुम हो कौन ,
हनुमत तोड़े अपना मौन।
बोले साला ये तो बताओ,
रस्सी किसने काटी आओ।
साला चोट लगी है मुझको,
नाटक सूझ रहा है तुझको।
गदा फेंक सीता पर झपटे,
एक दूसरे को मंच पर पटके।
हा -हा,हा-हा, हँसे दर्शक,
सुन्दर सीन था आकर्षक।
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यह मेरी मौलिक एवं स्वरचित
कविता है।
विजय कुमार,कंकेर,औरंगाबाद।