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दूध का कर्ज


 *दूध का कर्ज*

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पति ने कहा पत्नी से,

बेटे का फर्ज निभाना है ।

माँ पड़ी है बेड़ पर अंतिम,

सेवा कर दिखलाना है।


फोन आया था मेरे मित्र का,

पूत- सपूत कहलाना है।

तू भी चलो हे प्रिय साथ में,

घर पर मुझको जाना है।


पाली -पोषी दूध पिलाकर,

दूध का कर्ज चुकाना है।

पत्नी बोली चार बहू हैं,

मुझे कमाना खाना है।


आज नहीं तो कल बुढ़िया के,

टिकट यहाँ से कट जाना है।

मुझसे सेवा नहीं बनेगी,

करती खूब बहाना है।


छोड़ो ध्यान माता की ओर से,

नहीं रखी कोई खजाना है।

कह दो घर पर मुझे नहीं छुट्टी,

नहीं एक भी अन्न का दाना है।


कमाऊँ नहीं तो खाऊँगा क्या,

पूर्वज का कौन  खजाना है?

कह दो अपने भाई से फोन पर,

उधार लेकर दूध पिलाना है।


खाना खिला देगी जेठानी,

देवरानी से तेल लगवाना है।

भेज देना कुछ पैसा - वैसा,

और सभी उधार चुकाना है।


दूध के बदले दूध पिलवाकर,

दूध का कर्ज चुकाना है।

सुनकर बोला दादी का पोता,

मुझे भी फर्ज निभाना है।


मम्मी सच -सच तुम बतलाना,

कितने पैसों का दूध पिलाना है?

एक-एक पाई जोड़कर कहना, 

मुझे भी दूध का कर्ज चुकाना है।

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यह मेरी मौलिक एवं स्व रचित

 कविता है।

विजय कुमार, कंकेर,औरंगाबाद

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