जब भी तुझको याद करूँ आँखें भर आती है।
मेरे बिछुड़े गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
महानगर में खो गया है कहीं मेरा छोटा गाँव।
घर के आँगन में नहीं मिलती वहाँ नीम की छाँव।
दादी कहती आज पाहुना कोई आएगा,
बैठ मुंडेरे काला कौआं बोल रहा है काँव।
घने नीम की शीतल छाया याद मुझे अब आती है।
मेरे बिछुडे गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
बचपन में खेला करते थे मिलकर छुपम-छुपाई।
गली-गली में और हर घर में छिप जाते थे भाई।
उस कौने में छिपा हुआ है,चाची जब बतला देती,
यहाँ पर कोई नहीं छिपा है,झटसे कह देती थी ताई।
बचपन की वह छुपम-छुपाई याद मुझे अब आती है।
मेरे बिछुडे गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
गाँव के उस बड़े बगड़ में रोज ही खेला करता था।
पीपल वाले पनघट पर भी रोज ही मेला लगाता था।
नन्दू चाचा की हाट पर मीठी गोली मिलती थी,
चौराहे पर कहीं चाट का रोज ही ठेला लगता था।
नन्दू वाली मीठी गोली याद मुझे अब आती है।
मेरे बिछुडे गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
छप्पर नीचे बैठ कबीरा मोटा कपड़ा बुनते थे।
आल्हा,ढोला,ग़ज़ल,रागिनी सब ही मिलकर सुनते थे।चौपालों में बैठ-बैठकर सबका दु:ख साझा करते,
आजान भी होती मस्जिद में,मंदिर में घंटे बजते थे।
आल्हा,ढोला,ग़ज़ल,रागिनी,याद मुझे अब आती है।
मेरे बिछुडे गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
उठकर बैठो हुआ सवेरा,गौरया हमें जगाती थी।
निज बछड़े को दूध पिलाने गैया सदा रम्भाती थी।
मुर्गे की बस एक बाँग पर सब सोते जग जाते थे,
घास-फूँस के झप्पर में भी शीत-ऋतु कट जाती थी।
फुदक-फुदक नाचे गौरया याद मुझे अब आती है।
मेरे बिछुडे गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
कुछ मस्ती सी घुली पवन में,फागुन के थे गीत वहाँ।
हल चलते बैलों के घुँघरू, बजता था संगीत वहाँ।
ओढ़ चुनरियाँ बासंती सी सरसों दुल्हन लगती थी,
मोर नाचता कहीं खेत में,कोयल का था गीत वहाँ।
पेड़ों में पक्षी कलरव की याद मुझे अब आती है।
मेरे बिछुडे गाँव मुझे अब तेरी याद सताती है।
सुरेन्द्र शर्मा 'उदय'
7/120 गंगा विहार, नेहरू रोड़
बड़ौत (बागपत) उ0 प्र0।