गांव अपना अबभी सुंदर- प्यारा है
वहां शोर का कोई नहीं पहरा है
जुम्मन मियां के मुर्गे की वाग से
मंदिर की घंटा के आवाज से
ट्रैक्टर और चक्की की फट फट से,
अब होता नीत नया सवेरा है.
अब बैलों की जगह टैक्टर ने
भले ही ले ली है फिर भी
दरवाजों पर गोवंश का पहरा
और भैंसों का कतार मारकर
मस्ति में पागुर का नजारा
बहुत ही सुंदर और न्यारा है.
पूरब में सूरज की लाली से
चमकती गेहूं की बालियां,
धान के सुनहरे चमकते दाने
लहलहाती धरती की हरियाली
गोधूलि के बीच बेसुरे गीत से,
सांझ पहर झींगुरों का सीत्कारा है.
बुदबुदाते दुपट्टा समेटे हुए
मंदिर के तरफ भागते पुजारी
मोटरसाइकिल पर लादे बाल्टी
दूध की, शहर जाता बनवारी
ठेले या सिर पर लादे खोमचा
फेरहा सबकी करता वारा न्यारा है.
अब भी लोग मिलते हैं वैसे
कोई भेदभाव नहीं हो जैसे
धर्म जाति की नहीं कोई लड़ाई
ईद होली मिल बांटे मिठाई
शहर से अलग अब भी गांव है
किसी से नहीं कोई किनारा.
----गोपाल मिश्र, सिवान
अति सुंदर।
सादर चरण स्पर्श।
माटी की सोंधी सुगन्ध बिखेरती इस श्रेष्ठ रचना के लिए आपको कोटिशः बधाई एवं सादर नमन sir.
💐💐
अविस्मरणीय सारगर्भित
Very nice sir
इस धूप जिन्दगी में साहित्य की छाव हो
नहले पे दहला यदि वहा अपना गाव हो
विपिन मौर्य
उक्त सजीव रचना हमें गांव के शुद्ध वातावरण और दैनिक क्रियाकलापों का एक सजीव चलचित्र का आभास कराती है ।
महोदय! आप के द्वारा प्रयुक्त किये गए शब्द सामग्री चेतना पटल पर घर कर जाते हैं । मन प्रफुल्लित हो जाता है ।
इस मनोरम कृति के लिए हृदयतल से धन्यवाद 🙏
माँ सरस्वती की कृपा आप पर बनी रहे ।
आपका स्नेहाकांछी-
सुजीत कुमार यादव (सo अo)टेउवा खालसा
अति सुंदर।
सादर प्रणाम
सुरत