एक रचना
दादा जी का गाँव
याद आ रहा मुझको
मेरे दादा जी का गाँव ,
जिसकी संकरी संकरी गलियां
नीम बरगद की छांव।
वो भोर सांझ के कलरव,
खूंटे से बंधी गईया
हर नारी में यशोदा मैया,
सदा आदर के चादर में लिपटा
बुजुर्गो का सम्मान।
याद आ रहा मुझको दादा जी...
स्वानो को रोटी, पंछियों के दाने
खेतों की फसलें, सरसों के फूल,
सब्जियों की बेलें जो वृक्षों पर झूलें,
बेखौफ हँसता बचपन,वो पनघट,
नहरें, नदियों के धार,
हर हाल में रहते सब खुशहाल।
याद आ रहा है मुझको...
पूजा की घंटी,वंदन,चंदन गूंजता शंखनाद,
रीति रिवाज की दीवारें,जो सबको बांधे,
नैनो से छलके, स्नेह संस्कार।
वो सावन के झूले, शिवरात्रि के मेले,
जलती ढिबरी में भोजन करते साथ साथ,
ठिठुरती रातों में तापते अलाव,
हर सुख-दुख में रहते सब खुशहाल।
याद आ रहा है मुझको, मेरे
दादाजी का गाँव ।।
रेणु झा रेणुका,
रांची (झारखंड) से।
👌👌👍👍
हमें भी गांव की याद आ गई। वाह वाह
शांति और सगुन,हृदय स्पर्शी रचना
ग्रामीण भाव भीनी परिदृश्य,
खुशियाँ और सम्मान, प्राकृतिक परिस्थितियों की ताजगी एवं सम्पूर्ण सादगी हमें कृथार्त कर रहा ।