चिता कभी न प्रश्न उठाती
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जहाँ पे खिलते फूल सुहाने,
कंटक भी मिलते विकराल ।
जिवन के सुन्दर घडियों में,
मौत आती है बनकर काल ।।
मन मंदिर को बेध रहे हैं,
तरह तरह के नये सवाल ।
बदल गया है रूप धरा का,
बदल रहे जीवन के चाल ।।
पथ की है पहचान नहीं अब,
भले बूरे का ज्ञान नहीं अब ।
उस मिट्टी पर दावा करते,
जिसमें है कोई जान नहींअब ।।
दिख रही जो सुन्दर काया,
छुपी हुई है उसमे माया।
जिसने इसपर ध्यान लगाया,
उसने जग मेंं नाम गंवाया ।।
सबको समझें एक समान,
गोरा हो या हो कोई श्याम ।
एक ईश्वर की सब संतान,
इतना मन में रख लें ध्यान ।।
रूप छोड़कर गुण को जाँचे,
तन में छुपे शुद्ध मन को आँके ।
स्वर्ण सुराही काम न आती,
मृदा घडा़ जो जल को पिलाती ।।
चाहे जैसा रूप हमारा,
गति एक सी होती है ।
काया बनी जिस मिट्टी की,
एक दिन उसमें खोती है ।।
गोरा-काला ऊंच नीच और,
लेखा जोखा हर धर्मों का ।
बन गई है पहचान धरा पर,
आज कलुषित कर्मो का ।।
चिता कभी न प्रश्न उठाती,
मरा जो मानव कैसा था ।
कब्र सुलाती बिन पुछे ही,
जो भी मानव जैसा था ।।
फिर आपस मे भेद करे क्यों,
धरा पर जीवित हर इन्सान ।
जात पात और रंग रूप में,
खोते खुद का स्वयं ईमान ।।
कवि ----- प्रेमशंकर प्रेमी (रियासत पवई )औरंगाबाद
रचना