*ग्राम परिवेश*
परिवेश मेरे गाँव का,
जाना है मैं ने इस वर्ष,
जाना है गाँव की भव्यता को,
और झेला है दरिद्रता को भी,
इस बार बन बैठा था बोझ,
अपनी ही कर्म भूमि पर,
जिसे बनाया था मैंने,
अपने ही बाहुबल से,
न ढल सका उसीके परिवेश में,
औ बन गया प्रवासी मैं अपने ही देश में,
पहुंचा नगर को महानगर बना,
बेमूल्य हो अपने गाँव मे,
मगर परिवेश कुछ भिन्न न लगा शहर से,
फर्क़ बस भीड़ का था,
वहाँ गैरों मे अकेले थे,
औ यहां अपनों के बीच तन्हा,
महाभारत अतीत नहीं,
वो आज है और कल भी होगी,
द्रौपदी तो मात्र बहाना थी,
ज़मी तो हस्तिनापुर कि हथियानी थी,
पुश्तैनी ज़मी के खातिर,
जंग वही पुरानी सी,
आज भी नहीं सुरक्षित यहां,
घर कि बेटी हो या पत्नियां,
सोच अभी भी वहीं कहीं हैं,
जाती हो या लड़कियाँ,
अपनी है तो इज्ज़त नहीं तो गालियाँ,
यहाँ नहीं केवल राम घरों मे,
कंस भी साथ मे रहता है,
एक जो पिता को ईश्वर माने,
दूसरा गालियां देता है,
मर्यादा को भूला शहर,
अपने सांकल मे करता गाँव,
दिखा की दुखा हृदय ऐसा,
अपने गाँव को बदलते देख,
दिखा इस बार मुझे धूमिल होता,
मेरे गाँव का खुशमिज़ाज परिवेश।
नाम :- विनायक पांडे;
कक्षा :- TYBA;
महाविद्यालय :- भारतीय विद्या भवन, अंधेरी (पश्चिम), मुंबई,(Bhavans college, Mumbai);
विश्वविद्यालय :- मुंबई विश्वविद्यालय;
Contact no :- 9892267623;
Mail id :- Vinayakpandey462@gmail.com
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