ऑंधियां
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बुझाती है दीया,
उजाड़ती है आशियाना।
ऑंधियों को चाहिए,
तबाही का बहाना।।
गिरे कितने शजर,
ढायी कैसा कहर।
तिनका तिनका बिखरा,
वीरान दीखता शहर।।
अहंकारी होते बेलगाम,
हृदय उनका पाषाण।
क्रोधाग्नि से फूले नथुने,
शक्तिमद फूले गुमान।
स्नेहसुधा वंचित हृदय,
निरंकुश दंभ से भरे।
बेधते बबूल जैसे,
मृदुल मन आघात करे।।
मौन दुर्बल नहीं,
सहनशक्ति नहीं असहाय।
सहकर सुख बांटने वाला,
मानवता का दीप जलाये।।
सब्र होती बड़ी बात,
असर ना दीखे तत्काल।
भास्कर बनो आप,
सुयश शोभित भाल।।
सुषमा सिंह
औरंगाबाद
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( स्वरचित एवं मौलिक)
उखाड़ती हैं कितनी ही बस्तियां
जब चलती है आंधियां
बहुत अच्छा