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गजल अंदाज में भजन का आनंद-लखन कछवाहा 'स्नेही'-kunj

 मां नर्मदा भजन(ग़ज़ल)
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कितना असर है देखो नर्मदा के नीर में ।
वो खुश नसीब हैं,जो बसे इसके तीर में ।।1
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तट वासियों के वास्ते,अमृत है नर्मदा ।
नहाते,पीते,खाते , प्रति दिवस  नीर में ।।2
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दर्शन बदलते रूप में,तटवासी पाते हैं ।
बदलता है नीर रूप,प्रति दिन समीर में ।।3
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कहते अभागी स्वयं को,जो दूर बसे हैं ।
हट जाती हैं कई पीर,नर्मदा के नीर में ।।4
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वो भी नसीब वाले हैं,जो परिक्रमा में हैं । 
नर्मदा-भक्ति लिखी, माथे की लकीर में ।।5
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'स्नेही' भजन मां के लिखा,धन्य हो गया ।
सुनना,सुनाना भजन, नहाना है नीर में ।।6
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 "रिश्ते"
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             (गजल)
बालिग उमर के आते ही,रिश्ते भी आ गए ।
हैसियत को देख मंहगे व सस्ते भी आ गए ।।1
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ठुकरा दिये गए सभी, जो लोग लालची ।
व्यावहारी जन के मंहगे,रिश्ते भी भा गए ।।2
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रिश्ते न होते जग में,तो पहचान न होती ।
पहचान बताने को  ही,रिश्ते भी छा गए ।।3
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जिंदा है- इन्सानियत,रिश्तों की बदौलत ।
कुछ लोग तो जहां में,रिश्ता भी गवां गए ।।4
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'स्नेही 'रिश्ता जोड़ना,युग-युग की रीत है । ।
हर युग में बनाये सभी,रिश्ते भी भा गए ।।5
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    मां- नर्मदा मैया का भजन
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रेवा के घाट पावन,जहां संत जन नहायें ।
पहचान संत जन की,नित रेवा को ध्यायें ।।1
संतों को लगे प्यारी, मां परिक्रमा तुम्हारी ।
निर्मोही बन के घूमें, गुणगान तेरा गायें ।।2
तेरे सहारे मैया, सभी भक्त जन तुम्हारे ।
वे-खौप घूमते हैं, वन में भी नहीं डरायें ।।3 
जिनको तेरा सहारा,उनको मिला किनारा ।
संकट के वक्त में भी, ऊबें न डगमगायें ।।4
तेरे भक्तों का निरादर,'स्नेही' नहीं देखा ।
तेरे भक्त सब जगह पे मांगे बिना ही पायें ।।5
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  "ऋतुरंग"
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ऋतु रंग को बखानना आसान नहीं है ।
ऋतु रंग की जहां में,कोई दूकान नहीं हैं ।।1
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ये माना छ: ऋतु रंग, हैं अलग-अलग ।
कैसे छहों गिना दूं, कोई पहचान नहीं है ।।2
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मुसाफिर की तरह ऋतुऐं,हैं धरा धाम में ।
धरनि में इनके रहने का,मकान नहीं है ।।3
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ऋतुओं के बदलने से,बदलता इनका रंग ।
दो माह से अधिक की , ये मेहमान नहीं है ।।4
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गर्मी ,बर्षा,शरद ऋतु, हेमन्त अरु शिशिर ।
'स्नेही' ये सब बसंत ऋतु ,  समान नहीं है ।।5
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          *****इति********
रचना ---लखन कछवाहा 'स्नेही'
              18122021
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