गजल
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हमने मक्कारों को इमां की बात करते देखा।
कत्ल कर भाईयों का सिंहासनारुढ होते देखा।।
आस्तीन में जो छुपाए चलते हैं खंजर।
छल छद्म अपनाकर मसीहाई छवि गढ़ते देखा।।
था धरा पर कभी अभिमानी दसशीश रावण।
आज दस चेहरेवालों को मुखौटा पहनते देखा।।
छाई चमन में वीरानी गुल भी हैं मुरझाए।
भूले भौरे गुनगुनाना गुलों को सिहरते देखा।।
जड़ काॅंप रही बूढ़े बरगद की।
शाखाओं पर झूला डलते देखा।।
जीवन की आपाधापी में रिश्ते हुए बेजार।
यहां हरेक को खुद में सिमटते देखा।।
फली बेइमानी चार दिन बन गयी अट्टालिका।
बद्दुआओं का असर ईंट ईंट बिखरते देखा।।
उच्च पदस्थ बेटे बस गये जाकर शहर।
बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम में पलते देखा।।
सुषमा सिंह
औरंगाबाद
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( सर्वाधिकार सुरक्षित एवं मौलिक)
बेजोड़।