फर्क
विधा कविता
कोई फर्क नहीं पड़ता है आंधी और तूफान से।
धीरज है अमोध अस्त्र मत गिरना तुम इंसान रे।।
कितना फर्क पड़ा अब देखो मानवता व्यवहार में।
मानव मूल्य गिर गये सारे ह्रास हुआ संस्कार में।।
मां बाप को नैन दिखाएं फैशन के दीवाने लोग।
लूट खसोट भ्रष्टाचारी रिश्वत का करते उपभोग।।
आचरण मलिन हो गए मर्यादा ढह गई सारी।
सत्य सादगी लुप्त हुए स्वार्थ भरी रिश्तेदारी।।
बदल गए तौर-तरीके मौसम के मिजाज यहां।
गिरगिट सा रंग बदलते लोग दगाबाज जहां।।
भूल गए सभ्यता सारी भूले अपनापन अनमोल।
सद्भावों की गंगा बहती रहे नहीं वो मीठे बोल।।
कागज के संदेशों में दिलों के हो जज्बात प्यारे।
कभी खुशी के आंसू होते कभी गमों के वो झारे।।
बदलावों का फर्क पड़ा हमारी जीवनधारा में।
बदल गई दुनिया सारी बदला प्रेम सारा रे।।
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धीरज
विधा मनहरण घनाक्षरी
नर धीरज धारिये, संयम धरे विचार।
धीरे-धीरे बढ़ चलो, ध्वज लहराइये।
धैर्यपूर्वक जो चले, शील गुणी जन जान।
धीरे-धीरे मुखर हो, पहचान पाइए।
धीर अमोध अस्त्र है, मृदु वाणी सुरज्ञान।
सुर लय तान बन, गीत गीत गाइए।
रणबीर बलवीर, समर न धरो धीर।
राष्ट्रहित रणभूमि, वीरता दिखाइए।
रमाकांत सोनी नवलगढ़
जिला झुंझुनू राजस्थान