राष्ट्रभाषा हिन्दी
मैं हिन्दी खड़ी तेरे द्वार ,
मैं कबसे बाहर हूँ खड़ी ।
अब भी खोल दो किवाँड़ ,
बहुत हूँ मैं सहमी डरी ।।
पराई नारी घर मे आ बैठे ,
पराए पर तुम ऐसे हो ऐंठे ।
पराई तो होती है पराई ,
बाहर से आतंकवादी पैठे ।।
अब आवे क्रंदन चीत्कार ,
नयनन अँसुवन भरी ।
मैं हिन्दी खड़ी तेरे द्वार ,
मै कबसे बाहर हूँ खड़ी ।।
घर के योगी योगड़ा ,
बाहर के योगी सिद्ध ।
प्रवासी हैं घर में विराजे ,
अप्रवासी को नोचे गिद्ध ।।
मिले न मुझे कोई आधार ,
मैं तो हूँ कब से पड़ी ।
मैं हिन्दी खड़ी तेरे द्वार ,
मैं कबसे बाहर हूँ खड़ी ।।
मैं दुखियारी किसे सुनाऊँ ,
कितना हुआ है हाल बुरा ।
अमृतमयी संस्कृति त्यज ,
पी रहा है जहरीला सुरा ।।
कैसा बदला मानव विचार ,
टूट रहे मानवता कड़ी ।
मैं हिन्दी खड़ी तेरे द्वार ,
मैं कबसे बाहर हूँ खड़ी ।।
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।